ब्लॉग: सेना की वीरता मोदी सरकार की राजनैतिक पूंजी नहीं है
देश में अगर किसी संस्था की इज़्ज़त अब तक बची हुई है तो वह सेना है.
यही वजह है कि सेना की साख और उससे जुड़ी जनभावनाओं के राजनीतिक दोहन की
कोशिश ज़ोर-शोर से जारी है.
अपने 48वें मासिक संबोधन में पीएम मोदी ने अपने मन की एक दिलचस्प बात कही है.
उन्होंने कहा कि "अब यह तय हो चुका है कि हमारे सैनिक उन लोगों को मुंहतोड़ जवाब देंगे जो राष्ट्र की शांति और उन्नति के माहौल को नष्ट करने का प्रयास करेंगे."
क्या पाकिस्तान की तरफ़ से आने वाली
यह युद्ध जैसा राजनीतिक माहौल तैयार करने की कोशिश है जिसमें सेना और सरकार को साथ-साथ दिखाया जा सके, जनता तक यह संदेश पहुंचाया जा सके कि मोदी सरकार सेना के साथ है और सेना सरकार के साथ है. इसके बाद यह साबित करना आसान हो जाएगा कि जो सरकार के ख़िलाफ़ हैं, वह सेना के भी ख़िलाफ़ हैं यानी देशद्रोही हैं.
जिस तरह हिंदू, राष्ट्र, सरकार, देश, मोदी, बीजेपी, संघ, देशभक्ति वगैरह को एक-दूसरे का पर्यायवाची बना दिया गया है, अब उसमें सेना को भी जोड़ा जा रहा है ताकि इनमें से किसी एक की आलोचना को, पूरे राष्ट्र की और उसकी देशभक्त सेना की आलोचना ठहराया जा सके.
प्रधानमंत्री ने वाक़ई नई बात तय की है, क्योंकि सेना का काम विदेशी हमलों से देश की रक्षा करना है लेकिन क्या 'राष्ट्र की शांति और उन्नति' के माहौल को नष्ट करने वालों से भी अब सेना निबटेगी?
उनकी इस बात पर गहराई से सोचना चाहिए, यह कोई मामूली बात नहीं है. उनके कहने का आशय है कि उनकी सरकार ने राष्ट्र में शांति और उन्नति का माहौल बनाया है, उसे नष्ट करने वाला कौन है, इसकी व्याख्या के सभी विकल्प खुले रखे गए हैं और वक्त-ज़रूरत के हिसाब से तय किए जा सकते हैं.या "राष्ट्र की शांति और उन्नति के माहौल को नष्ट करने वालों" के तौर पर विपक्ष, मीडिया, अल्पसंख्यक और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की भी बारी आ सकती है?
पाकिस्तान की सीमा के भीतर हमला करने की दूसरी बरसी को 'पराक्रम दिवस' घोषित कर दिया गया. मज़ेदार बात ये है कि पिछले साल ऐसा करने की ज़रूरत महसूस नहीं हुई थी, इस साल ज़रूरत महसूस हुई है तो उसके कारण भी हैं.
पिछले साल नीरव मोदी भागे नहीं थे, नोटबंदी के आंकड़े नहीं आए थे और सबसे बढ़कर रफ़ाल का हंगामा नहीं था, ऐसी हालत में पराक्रम दिवस को धूमधाम से मनाना एक अच्छा उपाय था. ये बात दीगर है कि 126 लड़ाकू विमानों की जगह सिर्फ़ 36 विमान ख़रीदने से सेना कैसे मज़बूत होगी, इसका जवाब नहीं मिल रहा है.
वाइस चीफ़ एयर मार्शल एसबी देव नियम-क़ानून जानते हैं, उन्होंने बार-बार कहा
ऐसी कितनी ही मिसालें हैं जब इस सरकार ने सेना को राजनीतिक मंच पर लाने की रणनीति अपनाई. एक बेकसूर कश्मीरी को जीप पर बांधकर घुमाने वाले मेजर गोगोई को प्रेस कॉन्फ्रेंस करने की अनुमति देना ऐसी ही अभूतपूर्व घटना थी. वही मेजर गोगोई श्रीनगर होटल कांड में दोषी पाए गए हैं और कार्रवाई का सामना कर रहे हैं.
सेना प्रमुख बिपिन रावत लगातार मीडिया से बात कर रहे हैं, प्रेस कॉन्फ्रेंस कर रहे हैं जो कि इस देश के प्रधानमंत्री ने आज तक नहीं की. उन्होंने बहुत सारी ऐसी बातें कही हैं जो इस देश में किसी सेनाध्यक्ष के मुंह से पहले कभी नहीं सुनी गई.
और तो और, उन्होंने एक परिचर्चा में ये तक कह दिया कि असम में बदरूद्दीन अजमल की पार्टी "एआईयूडीएफ़ बहुत तेज़ी से आगे बढ़ रही है", इसके बाद उन्होंने कहा कि असम के कुछ ज़िलों में मुसलमानों की आबादी बहुत तेज़ी से बढ़ रही है. उनके इस राजनीतिक बयान पर काफ़ी हंगामा हुआ था.
कि "मुझे इस मामले में बोलना नहीं चाहिए", "मैं इस मामले में बोलने के लिए अधिकृत नहीं हूँ", "मेरा बोलना ठीक नहीं होगा"... लेकिन ये ज़रूर कह गए कि "जो विवाद पैदा कर रहे हैं उनके पास पूरी जानकारी नहीं है." ख़ैर, लोग जानकारी ही तो मांग रहे हैं, मिल कहाँ रही है?
क्या वाइस चीफ़ मार्शल ने यह बयान बिना सरकार की सहमति के दिया होगा? एक राजनीतिक फ़ैसले को सही साबित करने के लिए सेना को आगे करने से जुड़े नैतिक सवाल जिन्हें नहीं दिखते, उन्हें किसी भाषा में नहीं बताया जा सकता कि इसमें क्या ग़लत है.
दुनिया के सभी लोकतांत्रिक देशों में सेना और राजनीति को अलग रखने की स्थापित परंपरा रही है और उसकी ठोस वजहें हैं, लेकिन भारत में सेना को राजनीति के केंद्र में लाने की रणनीति के लक्षण काफ़ी समय से दिख रहे हैं. शिक्षण संस्थानों में टैंक खड़े करके छात्रों में देशभक्ति की भावना का संचार करने का प्रयास या सेंट्रल यूनिवर्सिटियों में 207 फ़ीट ऊंचा राष्ट्रध्वज लहराने जैसे काम तो लगातार होते ही रहे हैं.
यह सब सावरकर के मशहूर ध्येय वाक्य के भी अनुरूप है कि "राजनीति का हिंदूकरण और हिंदुओं का सैन्यीकरण" किया जाना चाहिए.
हर गोली और हर गोले का जवाब भारतीय सेना अब से पहले नहीं दे रही थी? क्या सेना को कोई नए निर्देश दिए गए हैं? बिल्कुल नहीं.
अपने 48वें मासिक संबोधन में पीएम मोदी ने अपने मन की एक दिलचस्प बात कही है.
उन्होंने कहा कि "अब यह तय हो चुका है कि हमारे सैनिक उन लोगों को मुंहतोड़ जवाब देंगे जो राष्ट्र की शांति और उन्नति के माहौल को नष्ट करने का प्रयास करेंगे."
क्या पाकिस्तान की तरफ़ से आने वाली
यह युद्ध जैसा राजनीतिक माहौल तैयार करने की कोशिश है जिसमें सेना और सरकार को साथ-साथ दिखाया जा सके, जनता तक यह संदेश पहुंचाया जा सके कि मोदी सरकार सेना के साथ है और सेना सरकार के साथ है. इसके बाद यह साबित करना आसान हो जाएगा कि जो सरकार के ख़िलाफ़ हैं, वह सेना के भी ख़िलाफ़ हैं यानी देशद्रोही हैं.
जिस तरह हिंदू, राष्ट्र, सरकार, देश, मोदी, बीजेपी, संघ, देशभक्ति वगैरह को एक-दूसरे का पर्यायवाची बना दिया गया है, अब उसमें सेना को भी जोड़ा जा रहा है ताकि इनमें से किसी एक की आलोचना को, पूरे राष्ट्र की और उसकी देशभक्त सेना की आलोचना ठहराया जा सके.
प्रधानमंत्री ने वाक़ई नई बात तय की है, क्योंकि सेना का काम विदेशी हमलों से देश की रक्षा करना है लेकिन क्या 'राष्ट्र की शांति और उन्नति' के माहौल को नष्ट करने वालों से भी अब सेना निबटेगी?
उनकी इस बात पर गहराई से सोचना चाहिए, यह कोई मामूली बात नहीं है. उनके कहने का आशय है कि उनकी सरकार ने राष्ट्र में शांति और उन्नति का माहौल बनाया है, उसे नष्ट करने वाला कौन है, इसकी व्याख्या के सभी विकल्प खुले रखे गए हैं और वक्त-ज़रूरत के हिसाब से तय किए जा सकते हैं.या "राष्ट्र की शांति और उन्नति के माहौल को नष्ट करने वालों" के तौर पर विपक्ष, मीडिया, अल्पसंख्यक और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की भी बारी आ सकती है?
पाकिस्तान की सीमा के भीतर हमला करने की दूसरी बरसी को 'पराक्रम दिवस' घोषित कर दिया गया. मज़ेदार बात ये है कि पिछले साल ऐसा करने की ज़रूरत महसूस नहीं हुई थी, इस साल ज़रूरत महसूस हुई है तो उसके कारण भी हैं.
पिछले साल नीरव मोदी भागे नहीं थे, नोटबंदी के आंकड़े नहीं आए थे और सबसे बढ़कर रफ़ाल का हंगामा नहीं था, ऐसी हालत में पराक्रम दिवस को धूमधाम से मनाना एक अच्छा उपाय था. ये बात दीगर है कि 126 लड़ाकू विमानों की जगह सिर्फ़ 36 विमान ख़रीदने से सेना कैसे मज़बूत होगी, इसका जवाब नहीं मिल रहा है.
वाइस चीफ़ एयर मार्शल एसबी देव नियम-क़ानून जानते हैं, उन्होंने बार-बार कहा
ऐसी कितनी ही मिसालें हैं जब इस सरकार ने सेना को राजनीतिक मंच पर लाने की रणनीति अपनाई. एक बेकसूर कश्मीरी को जीप पर बांधकर घुमाने वाले मेजर गोगोई को प्रेस कॉन्फ्रेंस करने की अनुमति देना ऐसी ही अभूतपूर्व घटना थी. वही मेजर गोगोई श्रीनगर होटल कांड में दोषी पाए गए हैं और कार्रवाई का सामना कर रहे हैं.
सेना प्रमुख बिपिन रावत लगातार मीडिया से बात कर रहे हैं, प्रेस कॉन्फ्रेंस कर रहे हैं जो कि इस देश के प्रधानमंत्री ने आज तक नहीं की. उन्होंने बहुत सारी ऐसी बातें कही हैं जो इस देश में किसी सेनाध्यक्ष के मुंह से पहले कभी नहीं सुनी गई.
और तो और, उन्होंने एक परिचर्चा में ये तक कह दिया कि असम में बदरूद्दीन अजमल की पार्टी "एआईयूडीएफ़ बहुत तेज़ी से आगे बढ़ रही है", इसके बाद उन्होंने कहा कि असम के कुछ ज़िलों में मुसलमानों की आबादी बहुत तेज़ी से बढ़ रही है. उनके इस राजनीतिक बयान पर काफ़ी हंगामा हुआ था.
कि "मुझे इस मामले में बोलना नहीं चाहिए", "मैं इस मामले में बोलने के लिए अधिकृत नहीं हूँ", "मेरा बोलना ठीक नहीं होगा"... लेकिन ये ज़रूर कह गए कि "जो विवाद पैदा कर रहे हैं उनके पास पूरी जानकारी नहीं है." ख़ैर, लोग जानकारी ही तो मांग रहे हैं, मिल कहाँ रही है?
क्या वाइस चीफ़ मार्शल ने यह बयान बिना सरकार की सहमति के दिया होगा? एक राजनीतिक फ़ैसले को सही साबित करने के लिए सेना को आगे करने से जुड़े नैतिक सवाल जिन्हें नहीं दिखते, उन्हें किसी भाषा में नहीं बताया जा सकता कि इसमें क्या ग़लत है.
दुनिया के सभी लोकतांत्रिक देशों में सेना और राजनीति को अलग रखने की स्थापित परंपरा रही है और उसकी ठोस वजहें हैं, लेकिन भारत में सेना को राजनीति के केंद्र में लाने की रणनीति के लक्षण काफ़ी समय से दिख रहे हैं. शिक्षण संस्थानों में टैंक खड़े करके छात्रों में देशभक्ति की भावना का संचार करने का प्रयास या सेंट्रल यूनिवर्सिटियों में 207 फ़ीट ऊंचा राष्ट्रध्वज लहराने जैसे काम तो लगातार होते ही रहे हैं.
यह सब सावरकर के मशहूर ध्येय वाक्य के भी अनुरूप है कि "राजनीति का हिंदूकरण और हिंदुओं का सैन्यीकरण" किया जाना चाहिए.
हर गोली और हर गोले का जवाब भारतीय सेना अब से पहले नहीं दे रही थी? क्या सेना को कोई नए निर्देश दिए गए हैं? बिल्कुल नहीं.
Comments
Post a Comment